उलझती जा रही हूँ में अपने ज़िन्दगी के लकीरों में,
सपनों में आई हुई माँ की तस्वीर,
में कैसे बनाऊं ?
हर रंगों में उलझी हुई हूँ में,
माँ के स्नेह का कोई सपना ही आ जाए,
बीते हुए सपनों को में देख आयी,
फिर भी सुलझे न रंगों की समस्या,
जहाँ चोट लगने पर भी माँ के स्नेह का निशाँ था,
घंटो रोई थी में सपनों में,
माँ तो आती थी बार -बार,
माँ के चेहेरे नज़र आ रहे थे,
फिर भी में उन लकीरों और रंगों में उलझी हुई हूँ,
हर रोज आड़ी तिरछी रेखाए बनाती रही में माँ के शब्दों के,
पर माँ की तस्वीर को लेकर रंगों से आज तक में उलझी हुई हूँ,
कैसे बनाऊं में माँ की तस्वीर ।
~ ~ सदा बहार ~ ~
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